बीबीसी हिंदी में छपी खबर के अनुसार,
भारत प्रशासित कश्मीर में सुरक्षा बल प्रदर्शनकारियों को तितर बितर करने के लिए पेलेट गन यानी छर्रे वाली बंदूक का इस्तेमाल कर रहे हैं.
ये बंदूक जानलेवा नहीं है लेकिन इन बंदूकों के कारण कई प्रदर्शनकारियों को गंभीर चोटें लगी हैं.
कई बार प्रदर्शनकारियों के पास खड़े हुए लोग भी इनसे ज़ख्मी हुए हैं. इससे कई लोगों की आंखों की रोशनी तक चली गई है.
पेलेट गन क्या है?
ये पंप करने वाली बंदूक है जिसमें कई तरह के कारतूस इस्तेमाल होते हैं. कारतूस 5 से 12 के रेंज में होते हैं, पांच को सबसे तेज़ और ख़तरनाक माना जाता है. इसका असर काफ़ी दूर तक होता है.
पेलेट गन से तेज़ गति से छोटे लोहे के बॉल फायर किए जाते हैं और एक कारतूस में 500 तक ऐसे लोहे के बॉल हो सकते हैं.
फायर करने के बाद कारतूस हवा में फूटते हैं और छर्रे एक जगह से चारों दिशाओं में जाते हैं.
निशाने की तरफ फायर करने के बाद छर्रे सभी दिशाओं में बिखरते हैं जिससे पास से गुज़रते या दूर खड़े किसी को भी चोटें आ सकती हैं जो प्रदर्शन या भीड़ का हिस्सा भी नहीं हैं.
पेलेट गन, आम तौर से शिकार के लिए इस्तेमाल की जाती हैं, क्योंकि इससे छर्रे चारों तरफ बिखरते हैं और शिकारी को अपने लक्ष्य पर निशाना साधने में आसानी होती है.
लेकिन कश्मीर में ये गन मनुष्यों पर इस्तेमाल हो रही है और ये खौफ़ पैदा कर रही है.
इस हथियार को 2010 में कश्मीर में अशांति के दौरान सुरक्षा बलों ने इस्तेमाल किया था जिससे 100 से ज्यादा प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई थी.
सुरक्षा बल क्या कहते हैं?
कश्मीर में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के पीआरओ राजेश्वर यादव कहते हैं कि सीआरपीएफ़ के जवान प्रदर्शनकारियों से निपटने के दौरान 'अधिकतम संयम' बरतते हैं.
राजेश्वर यादव कहते हैं, "विरोध प्रदर्शन को विफल करने के लिए हम 9 नंबर का कारतूस इस्तेमाल करते हैं. इसका कम से कम प्रभाव होता है और ये घातक नहीं है."
लेकिन यादव की बात से सहमति नहीं रखने वाले एक उच्च पुलिस अधिकारी अपना नाम नहीं बताने की शर्त पर कहते हैं कि सुरक्षाबलों को भीड़ को तितर-बितर करने के लिए 12 नंबर के कारतूस का इस्तेमाल करना चाहिए.
बहुत की कठिन परिस्थितियों में नंबर 9 कारतूस का इस्तेमाल होना चाहिए.
भारत प्रशासित कश्मीर में हो रहे ताज़ा प्रदर्शनों के दौरान दो लोगों की मौत छर्रे लगने से हुई है.
छर्रों से कई लोगों की आंखों को गंभीर नुक़सान पहुंचने पर मानवाधिकार संगठन और कश्मीर के नागरिक समाज ने पेलेट गन के इस्तेमाल पर सवाल उठाए हैं.
एमनेस्टी इंटरनेश्नल (भारत) ने बयान जारी कर कश्मीर में पेलेट शॉटगन के इस्तेमाल की निंदा की है.
इलाज की दिक्कत, आंख जाने का डर
जो लोग पेलेट गन के इस्तेमाल से घायल होते हैं, उन्हें परिवारवालों को इलाज के लिए कश्मीर के बाहर ले जाना पड़ता है.
पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए उन्हें ज्यादा उम्मीदें तो नहीं हैं कि आंखों की रौशनी वापिस आ जाएगी, लेकिन इससे उन्हें भारी कीमत भी चुकानी पड़ रही है.
उत्तरी कश्मीर के बारामुला के रहने वाले 22 साल के आमिर कबीर की ज़िंदगी पिछले पांच सालों से अंधेरे में है.
2010 की अशांति के दौरान आंखों में छर्रे लगने से उनकी दोनों आंखों की रौशनी चली गई है.
कबीर के परिवार को उसके इलाज के लिए काफी पैसों का इंतज़ाम करना पड़ा. सड़क किनारे रेड़ी लगाने वाले उनके पिता बहुत ही मुश्किल से घर चलाते हैं.
कबीर की मां कहती हैं, "मुझे अपने गहने बेचने पड़े जिससे कश्मीर के बाहर इलाज का खर्च उठाया जा सके, वो भी नाकाफी रहा और हमें अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियों से पैसे उधार लेने पड़े."
इसी साल मार्च में 15 साल के आबिद मीर को उस वक्त छर्रे लगे जब वो एक चरमपंथी के अंतिम संस्कार से लौट रहा था.
मीर के परिवार को दूसरों से पैसे मांगकर अपने बेटे का इलाज कराना पड़ा. कश्मीर में ठीक तरीके से इलाज नहीं हो पाने के कारण उन लोगों ने अमृतसर में इलाज करने की सोची.
मीर के चाचा का कहना है, "हमें इलाज में करीब दो लाख़ रुपये खर्च करने पड़े."
'मु्र्दों की तरह जीने से मौत बेहतर'
जिन लोगों की छर्रे लगने से दृष्टि पूरी तरह से चली जाती है, वो मानसिक सदमे, निराशा और डिप्रेशन में डूब जाते हैं.
एक पल में उनकी ज़िन्दगी पूरी तरह से बदल जाती है .
जिनकी ज़िंदगी में एक समय उजाला रहा हो, उनके लिए अधेरे में धकेल दिया जाना स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है.
पुराने श्रीनगर में रहने वाले हयात डार को 2013 में रमज़ान के महीने में छर्रे लगे थे.
बहुत होनहार छात्र डार ग्रेजुएशन के अंतिम साल में था जब उसकी आंखों में छर्रे लगे.
मोटे चश्मे पहने डार कहते हैं, "मुझे पांच सर्जरी से गुज़रना पड़ा. करीब एक साल तक मैं पूरी तरह अंधेरे में रहा और अब मेरी बाईं आंख में थोड़ी रौशनी वापिस आई है."
उन्होंने कहा- "जब मेरी रौशनी चली गई तो मैं अक्सर ऊपरवाले से प्रार्थना करता था कि वो मुझे मार ही डाले. मौत बेहतर है मुर्दों की तरह ज़िंदा रहने की बजाए."